Add To collaction

राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

अनुरोध सुभद्रा कुमारी चौहान

(१)
"कल रात को मैं जा रहा हूँ ।”
"जी नहीं, अभी आप न जा सकेंगे” आग्रह, अनुरोध और आदेश के स्वर में वीणा ने कहा।
निरंजन के ओठों पर हल्की मुस्कुराहट खेल गई। फिर बिना कुछ कहे ही उन्होंने अपने जेब से एक पत्र निकाल कर वीणा के सामने फेंक दिया और शान्त स्वर में बोले-
'मुझे तो कोई आपत्ति नहीं आप इस पत्र को पढ़ लीजिए। इसके बाद भी यदि आपकी यही धारणा रही कि मैं न जाऊँ तो जब तक आप न कहेंगी मैं न जाऊँगा ।'
वीणा ने सर हिलाते हुए कहा-'जी नहीं,रहने दीजिए; मैं कोई पत्र-वत्र न पढ़ूँगी और न आपको जाने ही दूँगी ।'
हल्की मुस्कुराहट के साथ निरंजन ने पत्र उठा लिया और बोले—आप न पढ़ना चाहें तो भले ही न पढ़ें पर...
उनकी बात को काटते हुए वीणा ने कहा--"अच्छा लाइये; जरा देखूँ तो सही, किसका पत्र है ? पत्र-लेखक मेरा कोई दुश्मन ही होगा जो इस प्रकार अनायास ही आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहता है ।”
निरंजन हँस पड़े; और हँसते हँसते वोले–पत्र पढ़ लेने के बाद पत्र-लेखक को शायद आप अपना दुश्मन न समझ कर मित्र ही समझें ।'
वीणा ने विरक्ति के भाव से कहा 'जी नहीं, यह हो ही नहीं सकता; जो आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहे, वह कोई भी हो, मैं तो उसे अपना दुश्मन ही कहूँगी ।”
निरंजन ने कहा-“सच !! पर आप ऐसा क्यों सोचती हैं ?”
वीणा ने निरंजन की बात नहीं सुनी । वह तो पत्र पढ़ रही थी, जिसमें लिखा था-
मेरे प्राण... ...

एक महीना पहिले तुम्हारा पत्र आया था; तुमने लिखा था कि यहाँ का काम एक-दो दिन में निपटा कर रविवार तक घर अवश्य आ जाऊँगा ! इसके बाद सोचो तो कितने रविवार निकल गए । रोज़ तुम्हारी रास्ता देखती हूँ। उधर से आने वाली हर एक ट्रेन के समय उत्सुकता से कान दरवाजे पर ही लगे रहते हैं। ऐसा मालूम होता है कि अब तांगा आया ! अब दरवाजे पर रुका ! और अब तुम मेरे प्राण !! आकर मुझे............क्या कहूँ । मैं जानती हूँ कि तुम अपना समय कहीं व्यर्थ ही नष्ट न करते होओगे । किन्तु फिर भी जी नहीं मानता । यदि पंख होते तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाती। तुम कब तक आओगे ? जीती हुई भी मरी से गई-बीती हूँ।

जब दो पक्षियों को भी एक साथ देखती हूँ तो दृदय में हूक सी उठती है । क्या यह लिख सकोगे कि कब तक मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? वैसे तुम्हारी इच्छा जब आना चाहो, पर मेरा तो जी यही कहना है कि पत्र के उत्तर में स्वयं ही चले आओ ।
-तुम्हारी
पत्र पढ़ते-पढ़ते कई बार चीणा के चेहरे पर विषाद की एक झलक आई और चली गई। पढ़ने के पश्चात् पत्र को उसने चुपचाप निरंजन की ओर बढ़ा दिया । निरंजन ने पत्र लेकर जेब में रख लिया । कुछ क्षण तक दोनों चुपचाप बैठे रहे; फिर वही रोज का कार्यक्रम, उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का अनुवाद आरंभ हो गया । निरंजन शान्त और अविचल थे। किन्तु वीणा स्वस्थ न थीं। आज वह रुबाइयों को न तो ठीक तरह से पढ़ ही सकती थी और न उनका अनुवाद ही कर सकती थी । निरंजन से वीणा की मानसिक अवस्या छिपी न रह सकी। उन्होंने कहा–'आज आप अनुवाद का काम रहने ही दें; कल हो जायगा | चलिए; थोड़ी देर ग्रामोफोन सुनें ।'
बाजे में चाबी भर दी गई। रेकार्ड चढ़ा दिया गया । इन्दुबाला का गाना था ‘सजन तुम काहे को नेहा लगाए ।' एक : दोः तीन, वीणा ने बार-बार इसी रेकार्ड को बजाया । तब तक वीणा के पति कुंजबिहारी आफ़िस से लौटे; बोले वीणा तुमसे कितनी बार कहा कि इतनी मेहनत मत किया करो; पर तुम नहीं मानतीं । ज़रा अपना चेहरा तो जाकर शीशे में देखो, कैसा हो रहा है।
वीणा कुछ न बोली । निरंजन ने कहा-“जी हां, यही बात तो मैं भी इन से कह रहा था कि आप इतनी मेहनत न करें। सब होता रहेगा।”

अनुरोध सुभद्रा कुमारी चौहान

(१)
"कल रात को मैं जा रहा हूँ ।”
"जी नहीं, अभी आप न जा सकेंगे” आग्रह, अनुरोध और आदेश के स्वर में वीणा ने कहा।
निरंजन के ओठों पर हल्की मुस्कुराहट खेल गई। फिर बिना कुछ कहे ही उन्होंने अपने जेब से एक पत्र निकाल कर वीणा के सामने फेंक दिया और शान्त स्वर में बोले-
'मुझे तो कोई आपत्ति नहीं आप इस पत्र को पढ़ लीजिए। इसके बाद भी यदि आपकी यही धारणा रही कि मैं न जाऊँ तो जब तक आप न कहेंगी मैं न जाऊँगा ।'
वीणा ने सर हिलाते हुए कहा-'जी नहीं,रहने दीजिए; मैं कोई पत्र-वत्र न पढ़ूँगी और न आपको जाने ही दूँगी ।'
हल्की मुस्कुराहट के साथ निरंजन ने पत्र उठा लिया और बोले—आप न पढ़ना चाहें तो भले ही न पढ़ें पर...
उनकी बात को काटते हुए वीणा ने कहा--"अच्छा लाइये; जरा देखूँ तो सही, किसका पत्र है ? पत्र-लेखक मेरा कोई दुश्मन ही होगा जो इस प्रकार अनायास ही आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहता है ।”
निरंजन हँस पड़े; और हँसते हँसते वोले–पत्र पढ़ लेने के बाद पत्र-लेखक को शायद आप अपना दुश्मन न समझ कर मित्र ही समझें ।'
वीणा ने विरक्ति के भाव से कहा 'जी नहीं, यह हो ही नहीं सकता; जो आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहे, वह कोई भी हो, मैं तो उसे अपना दुश्मन ही कहूँगी ।”
निरंजन ने कहा-“सच !! पर आप ऐसा क्यों सोचती हैं ?”
वीणा ने निरंजन की बात नहीं सुनी । वह तो पत्र पढ़ रही थी, जिसमें लिखा था-
मेरे प्राण... ...

एक महीना पहिले तुम्हारा पत्र आया था; तुमने लिखा था कि यहाँ का काम एक-दो दिन में निपटा कर रविवार तक घर अवश्य आ जाऊँगा ! इसके बाद सोचो तो कितने रविवार निकल गए । रोज़ तुम्हारी रास्ता देखती हूँ। उधर से आने वाली हर एक ट्रेन के समय उत्सुकता से कान दरवाजे पर ही लगे रहते हैं। ऐसा मालूम होता है कि अब तांगा आया ! अब दरवाजे पर रुका ! और अब तुम मेरे प्राण !! आकर मुझे............क्या कहूँ । मैं जानती हूँ कि तुम अपना समय कहीं व्यर्थ ही नष्ट न करते होओगे । किन्तु फिर भी जी नहीं मानता । यदि पंख होते तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाती। तुम कब तक आओगे ? जीती हुई भी मरी से गई-बीती हूँ।

जब दो पक्षियों को भी एक साथ देखती हूँ तो दृदय में हूक सी उठती है । क्या यह लिख सकोगे कि कब तक मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? वैसे तुम्हारी इच्छा जब आना चाहो, पर मेरा तो जी यही कहना है कि पत्र के उत्तर में स्वयं ही चले आओ ।
-तुम्हारी
पत्र पढ़ते-पढ़ते कई बार चीणा के चेहरे पर विषाद की एक झलक आई और चली गई। पढ़ने के पश्चात् पत्र को उसने चुपचाप निरंजन की ओर बढ़ा दिया । निरंजन ने पत्र लेकर जेब में रख लिया । कुछ क्षण तक दोनों चुपचाप बैठे रहे; फिर वही रोज का कार्यक्रम, उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का अनुवाद आरंभ हो गया । निरंजन शान्त और अविचल थे। किन्तु वीणा स्वस्थ न थीं। आज वह रुबाइयों को न तो ठीक तरह से पढ़ ही सकती थी और न उनका अनुवाद ही कर सकती थी । निरंजन से वीणा की मानसिक अवस्या छिपी न रह सकी। उन्होंने कहा–'आज आप अनुवाद का काम रहने ही दें; कल हो जायगा | चलिए; थोड़ी देर ग्रामोफोन सुनें ।'
बाजे में चाबी भर दी गई। रेकार्ड चढ़ा दिया गया । इन्दुबाला का गाना था ‘सजन तुम काहे को नेहा लगाए ।' एक : दोः तीन, वीणा ने बार-बार इसी रेकार्ड को बजाया । तब तक वीणा के पति कुंजबिहारी आफ़िस से लौटे; बोले वीणा तुमसे कितनी बार कहा कि इतनी मेहनत मत किया करो; पर तुम नहीं मानतीं । ज़रा अपना चेहरा तो जाकर शीशे में देखो, कैसा हो रहा है।
वीणा कुछ न बोली । निरंजन ने कहा-“जी हां, यही बात तो मैं भी इन से कह रहा था कि आप इतनी मेहनत न करें। सब होता रहेगा।”

   0
0 Comments